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असम में 5 फीसदी वोट की लड़ाई,जेडीयू-आरजेडी किसका पलड़ा भारी?

पटना. बिहार में हुए चुनाव के बाद अब सभी की निगाहें पश्चिम बंगाल और असम में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है. पूर्वोत्तर की राजनीति की धुरी असम है और इस धुरी के इर्द गिर्द बिहार की दो बड़ी पार्टियां आरजेडी और जेडीयू भी घूमती नज़र आ रही हैं. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने गुवाहाटी दौरे के दौरान असम में ना सिर्फ चुनाव लड़ने का ऐलान किया,बल्कि कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन में अपनी जगह बनाने की कोशिश में भी जुटे हैं. तेजस्वी के गुवाहाटी पहुंचने से तीन दिन पहले ही आरजेडी के वरिष्ठ नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी और श्याम रजक असम में डेरा डाले हुए थे.

तेजस्वी ने असम कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रुपेन बरुआ से गठबंधन को लेकर मुलाकात की वहीं AIDUF प्रमुख बदरुद्दीन अजमल से भी बात हुई, दूसरी तरफ जेडीयू भी असम में चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटा है, हालांकि जेडीयू का किसी के साथ गठबंधन की अब तक बात नहीं है. संगठन विस्तार के मकसद से पार्टियां दूसरे राज्यों में चुनाव लड़ती रही हैं, लेकिन सवाल है बिहार में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने वाली पार्टी आरजेडी और जेडीयू के लिए असम में कितना स्कोप है.

दरअसल आरजेडी और जेडीयू दोनो की नज़रें असम में रहने वाले बिहार यूपी के हिंदीभाषी लोगों पर हैं, जिनकी आबादी करीब 5 फीसदी है. खास तौर पर असम के चाय बागान में बड़ी संख्या में बिहार-यूपी और झारखंड के मजदूर काम करते हैं. माना जा रहा है कि असम की 126 विधानसभा सीटों में से 12 से 15 ऐसी सीटें हैं, जिस पर हिंदीभाषी हार-जीत तय करते हैं. खास तौर पर बिस्वनाथ, लखीपुर, सोनारी, नलबाड़ी, ढ़ींग, कोकराझार पूर्वी, गोलाघाट, जोरहट, कलियाबोर, टिओक, लहरियाघाट, बारछला, दुधानी, ढुबरी, गौरीपुर, राहा, मारीगांव, गोलपारा पूर्वी, अभयपुरी उत्तरी, दिगबोई, नाओबईछा, बोंगाईगांव, डलगांव, दिसपुर, गुवाहाटी पूर्व जैसी विधानसभा सीटों पर हिंदीभाषियों की अहम भूमिका मानी जाती है.

यही वजह है कि तेजस्वी ने गुवाहाटी दौरे के दौरान ना सिर्फ हिंदी भाषी और प्रवासी हिंदीभाषी से मिले, बल्कि बिहार में बेरोजगारी और पलायन का मुद्दा भी उठाया. जेडीयू का कहना है कोरोनाकाल के दौरान प्रवासी मजदूरों की दुख की घड़ी में तेजस्वी यादव कहां गायब रहे, हालांकि ये अलग बात है कि जब कोरोनाकाल के दौरान असम से भी सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर पैदल चलकर बिहार लौटे थे, तब किसी ने इनकी सुध नहीं ली थी.

आरजेडी और जेडीयू के प्रवासी मजदूरों को लेकर अपने-अपने दावों के पीछे दरअसल असम के 5 प्रतिशत प्रवासी हिंदीभाषियों को अपने पक्ष में करने की कोशिश हैं लेकिन सवाल है कि क्या ये 5 प्रतिशत हिंदीभाषी लोगों ने आज तक कभी चुनाव में जेडीयू या आरजेडी का साथ दिया है, जवाब समझने के लिए पिछले चुनाव के आंकड़ों पर गौर कीजिए.

आरजेडी जहां असम विधानसभा चुनाव में दो बार 2001 औऱ 2006 अपनी किस्मत आजमा चुका है, वहीं जेडीयू चार बार 2001, 2006, 2011 और 2016 में चुनाव लड़ चुका है. साल 2001 में आरजेडी ने 6 सीटों पर चुनाव लड़ा था सभी 6 सीटों पर आरजेडी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी और सभी 6 सीटों पर महज 2,378 वोटों के साथ शून्य वोट प्रतिशत हासिल हुए थे, वहीं 2006 में आरजेडी ने 7 सीटों पर चुनाव लड़ा था. सभी 7 सीटों पर आरजेडी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी और सभी 7 सीटों पर महज 7,476 वोटों के साथ 0.1 फीसदी वोट प्रतिशत हासिल हुए थे.

बात जेडीयू की करें तो 2001 में जेडीयू ने 6 सीटों पर चुनाव लड़ा था. सभी 6 सीटों पर जेडीयू उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. पार्टी को सभी 6 सीटों पर कुल 7,645 वोटों के साथ 0.1 वोट प्रतिशत मिले. साल 2006 में 12 सीटों पर जेडीयू ने उम्मीदवार उतारे. सभी 12 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। सभी 12 सीटों पर कुल 12,337 वोटों के साथ 0.1 फीसदी वोट मिले. फिर साल 2011 में जेडीयू ने सिर्फ 2 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन दोनो सीटों पर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई और 3,020 वोटों के साथ वोट प्रतिशत ज़ीरो रहा.

जेडीयू ने पिछले विधानसभा चुनाव 2016 में 4 उम्मीदवार उतारे थे जहां फिर से चारों उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई, हालांकि थोड़ी राहत ये रही कि बिस्वनाथ और लखीपुर विधानसभा सीटों पर जेडीयू उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे. लखीपुर विधानसभा सीट पर तो जेडीयू उम्मीदवार को 8.3 फीसदी वोट प्रतिशत के साथ 8,923 वोट मिले थे, वहीं सभी 4 विधानसभा सीटों पर जेडीयू को 12,538 वोटों के साथ 0.1 वोट प्रतिशत हासिल हुए थे.

जाहिर है बिहार से निकलकर असम में रहने वाले हिंदी भाषियों ने जेडीयू और आरजेडी दोनों को खास भाव नहीं दिया है फिर भी 5 प्रतिशत प्रवासी हिंदीभाषियों के सहारे जेडीयू और आरजेडी असम में अपने पैर जमाने की एक बार फिर कोशिश में हैं. ऐसे में देखना होगा इस बार तेजस्वी के तेज या नीतीश के चेहरे की ओर प्रवासी हिंदीभाषियों का कितना झुकाव होता है.

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